उस रोज़ मेरी बालियां तेरे होठों से
कुछ यूँ टकराई
कि ज़िन्दगी ग़ज़ल बन झूमती रही।
मैंने महसूस किया
उस धधकती सांस को।
जो जिस्म पर पड़े ज़ख्मों को
फू फू कर लाड़ करती रही।
उस रोज़ मेरे बालों से तेरी उंगलियां
कुछ यूँ गुज़री
कि मंज़िलें बाहें फैलाये तकती रही।
हाँ उस रोज़ मैंने महसूस किया
कि हद से बेहद और बेहद से अनहद का सफ़र
कितना सिन्दूरी है।
प्रियंका गोस्वामी
कुछ यूँ टकराई
कि ज़िन्दगी ग़ज़ल बन झूमती रही।
मैंने महसूस किया
उस धधकती सांस को।
जो जिस्म पर पड़े ज़ख्मों को
फू फू कर लाड़ करती रही।
उस रोज़ मेरे बालों से तेरी उंगलियां
कुछ यूँ गुज़री
कि मंज़िलें बाहें फैलाये तकती रही।
हाँ उस रोज़ मैंने महसूस किया
कि हद से बेहद और बेहद से अनहद का सफ़र
कितना सिन्दूरी है।
प्रियंका गोस्वामी
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