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Showing posts from 2018
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अमृता एक ऐसा नाम जो अपने साथ बहुत एहसास समेटे है।  उन्हीं एहसासों को समेटने की कोशिश की है मैंने उनके पत्रों से।  

तुम और मैं

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तुम साइंस के इक्वेशन मैं हिंदी की मात्रा । तुम ब्रह्माण्ड के सिद्धांत मैं सिंधु की धारा । तुम द्वितीय विश्व युद्ध मैं एन फ्रैंक की डायरी । तुम संविधान का आलेख मैं चित्रगुप्त की कचहरी । तुम गणित की गिनती मैं बही का खाता । तुम गरम दल की पगड़ी मैं चरखे का धागा .. तुम लंबी उम्र का आशीष मैं गौतम का शाप। तुम गंगा का पुण्य मैं कृष्ण का पाप । लेकिन मुझे पता है कहां मिलेगा किनारा। होगा कॉपी के आख़िरी पन्ने पर नाम हमारा । - प्रियंका

भूरी आंखों और लाल गालों वाला लड़का

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भूरी आंखों और लाल गालों वाला वो सुंदर सा लड़का पहली बार मुझे धारा पर दिखा । बैलों को हांकते अपने पिता के पीछे चलता हुआ । चलते वक़्त वो शरीर को बाईं ओर झुका लेता था जिससे उसकी चाल में उचकन थी । एक पैर छोटा था इसलिए उसका उचल कर चलना लाज़मी भी था । लेकिन मेरा ध्यान कभी उसकी भूरी आंखों और लाल गालों से हटा ही नहीं । दूसरी बार मैंने उसे अपने भाइयों के साथ भागते हुए देखा । भाई भागते थे और वो सबसे पीछे अपनी दुनिया में उड़ता था । एक पैर हमेशा हवा को धकेलता हुआ और दूसरा पैर ज़मीन को घसीटता हुआ। जब भी गर्मियों में मैं गांव आती वो अपने दोस्तों के साथ मिलकर मेरा मज़ाक उड़ाता । मेरे छोटे बाल और गढ़वाली ना समझ पाना मज़ाक का विषय हमेशा से रहा । साल बढ़ते रहे और वो सुंदर सा लड़का अब मज़ाक नहीं उड़ाता बल्कि जब भी मैं आती तो  मिलने पर दीदी प्रणाम कहकर उसी रफ़्तार के साथ उड़ता । बचपन में एक मकान की छत पर बैठे हुए उसके साथ एक हादसा हुआ और छत से बाहर निकली सरिया उसके पैरों में घुस गई। इलाज हुआ नहीं और वो यूंही ज़मीन को घसीटता हुआ जंगल..नदी और पहाड़ पार करता रहा। हर साल की तरह उस साल भी उसका पूरा...
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शहर की गंध पीछे छोड़े वो उस ऊंचे पहाड़ के ताल तक पहुंच ही गया । इस वक़्त वो पांडवों के साथ स्वर्ग की यात्रा करती द्रौपदी की तरह थक चुका था । इसलिए धड़ाम से दोनों हाथों को हवा में फैलाए हरी घास पर लेट जाता है..बिना परवाह किए कि वो वहीं बैठी है । वो मुस्कुराती है और तालाब को देखते हुए कहती है। "तुम्हें पता है ये तालाब शिव के नाग ने बनाया ।" लड़का बंद आंखों से बुदबुदाते हुए कहता है.." देवी.. देवता या भूतों की कहानी के अलावा कोई और कहानी है तुम लोगों के पास..कोई भी कहानी जो सुकून दे जाए" । शहर की गंध अब भी लड़के के साथ कहीं बाकी थी । लड़की गंध भांप लेती है और अपने बैग की डायरी से एक पीला फूल निकाल कर कहती है ।  "ये लो कहानी.. प्रेम कहानी है । इसे जानोगे तो प्रेम जान जाओगे.. और प्रेम जान जाओगे तो सुकून मिलेगा" लड़का आंखें खोलता है.. वो वहां नहीं थी । लेकिन बगल  में रखा था पीला फूल। तालाब की सतह पर शिव के चांद की छाया थी । उसने खुद को मिथ्या और यथार्थ के बीच का नाग पाया । #ek_hissa - प्रियंका

पहाड़ों में

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पहाड़ों के सबसे पुराने मकान मंदिर हो जाते हैं । और इंसान हो जाते हैं देवता । कुछ घास प्रसाद बन जाते हैं और धारा बन जाती है गंगा । पहाड़ों में फटी ऐड़ियों की दरारों से कहानी झांकती है । और डोली गाती है कविता । पहाड़ों में... पहाड़ ... कटकर भी पहाड़ रहते हैं ।  प्रियंका

पहाड़ी लड़कियां

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पहाड़ों से भागी हुई लड़कियां नहीं पहुंच पाई मैदानों तक। कुछ जो मैदानों तक पहुंची भी वो गंगा हो गई तो कुछ हो गई धर्मशाला । पहाड़ों से भगाई गई लड़कियां भी नहीं पहुंच पाई मैदानों तक । कुछ जो मैदानों तक पहुंची भी वो मैदानी हो गई तो कुछ हो गई जीतू बगडवाल । पहाड़ों से जो लड़कियां नहीं भागी और जिन्हें नहीं भगाया । वो पेड़ों का करती रहीं आलिंगन, और गाती रही जागर । और जब नहीं जागे देवता तो दरांती से काटने लगी पहाड़, पहाड़ को मैदान बनाने के लिए । - प्रियंका Note :- जीतू बग़द्वाल गढ़वाली लोक कथा का किरदार है जिसे पहाड़ी  परियां अपने साथ ले गई थी और फिर वो वापस कभी नहीं लौटा।

मैंने तुम्हें ढूँढा है।

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 Photo : Dipesh Puri जहाँ नहीं था कुछ  मैंने तुम्हें वहां पाया। मैंने तुम्हें वहां पाया  जहाँ कोने नहीं होते छिपने के लिए  और ना होते हैं दरवाज़े  किसी गए हुए का इंतज़ार करने के लिए। मैंने तुम्हें वहां पाया  जहाँ  नहीं होता इतिहास  किसी को ख़ुदा मानने के लिए,   और ना होते हैं नाम  लकीरों में ढूंढने लिए। वहां, जहाँ सारी सदियां  दम तोड़ रही थी, और हवा रुक कर  खुद सांस ले रही थी । जहाँ समंदर उछल कर  दूह रहे थे  पहाड़ के शिवालय।   लेकिन नदियां नहीं उलझी थी  पाप पुण्य के षणयंत्र में। मैंने तुम्हे वहां पाया  जहाँ खुद तुम नहीं गए,  कभी खुद को ढूंढोगे  तो पाओगे, कि तुमसे पहले मैंने  तुम्हें ढूँढा है। - प्रियंका 
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Photo : Pradeep Singh Mawari एक दिन पहाड़ समाधि से उठ बैठेंगे और नदियां मुड़ेंगी  सागर के सफीने को छू कर । उस दिन झीनी सी चांदनी में होगी गर्माहट और आसमान में होगा अक्स ज़मीन का। उस दिन मैं फिर खिलूँगी तुम्हारी बाहों में और गाउंगी कुछ गीत पहाड़ी। हाँ , वो दिन जब तुम "मैं" और "मैं" तुम हो जायेंगे । और  नहीं पड़ेगी ज़रूरत "हम" की राजनीति की ।  - प्रियंका

कल अगर मैं, ग़ुम हो जाऊं

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कल अगर मैं  ग़ुम हो जाऊं , तो मुझे ढूंढना  अपनी शर्ट के बटन में  जिन्हें लगाते ही एहसास होगा तुम्हें मेरे आलिंगन का।   अगर ढूंढने आओ  तो ढूंढना  उन पहाड़ों के मुहाने पर  जहां अब भी कैद हैं  तुम्हारे मीठे गीत।   क्या पता उन्हें सुनती हुई  मिल जाऊं मैं तुम्हें  खिली हुई फ्योली की तरह।   कल अगर मैं ग़ुम हो जाऊं ,  तो मत पुकारना मेरा नाम  किसी और की दी हुई चीज़  नहीं संभाल पाउंगी  अपने ग़ुम होने के बाद।  - प्रियंका 

मैं जान चुकी

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मैं सावित्री की तरह यमराज के पीछे नहीं चल पाऊँगी। ना सीता की तरह पार कर पाउंगी अग्नि कुंड। मैं पांचाली की तरह विलाप भी नहीं कर पाउंगी। और ना प्रतीक्षा कर पाउंगी अहिल्या की तरह। मैं मीरा की तरह प्रेम भक्ति में भी नहीं शामिल। और ना राधा की तरह वियोग में। मैं तो बस तुम्हे छू के नदी बन जाउंगी, और तुम्हारे जाने के बाद नहीं लगाउंगी आस तुम्हारे पलट के देखने की। नहीं गाउंगी वियोग के गीत और नहीं नापूंगी प्रतीक्षा परीक्षा के अग्नि कुंड। मैं जान चुकी ना तुम मेरे विधाता और ना मैं तुम्हारा भाग्य हम दोनों ही वक़्त  हैं। और खुद कहो गुज़रा हुआ  वक़्त पलट के आया है कभी ? - प्रियंका 

लाल गालों वाली लड़कियां

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पहाड़ों की  लाल गालों वाली लड़कियों ,  जब तुम काँधे पर बस्ता टांग  गुज़रती हो सीढ़ीनुमा खेतों के बीचो- बीच  तब तुम्हारे पीछे चल रही होती है माँ की फटकार ,  जो तुम्हें याद दिलाती है कि आज खेतों में गुड़ाई का दिन है।   वहीँ तुम्हारे हाथों में रह जाती है ताज़ा कटे घास की महक   और दो चोटियों में बंधे होते है बुरांश सरीखे फूल। टंगे बस्ते की बदौलत लाल गाल वाली लड़कियां नहर, गदेरों और जंगल से गुज़रते हुए खिलखिला के चलती हैं, और रास्ते में हर पत्थर को छू कर सोये देवता जगाती है। लाल गाल वाली लड़कियां  काँधे पर बस्ता टाँगे चुपके से देखती हैं  उस छवि को भी जिसे देखकर उनके लाल गाल और लाल हो जाते हैं।   जिससे चाह कर भी वो कभी बात नहीं करती लेकिन उसके  नाम के पहले अक्षर को  अपनी हथेलियों  पर सजाती और मिटाती हैं  , क्योंकि उन्हें पता है कि  उनकी डोली उस सामने खड़े पहाड़  को लांघ कर जाएगी। और फिर वो किसी और सीढ़ीनुमा खेतों...

धारा वाला भूत

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एक गांव था.. नाम क्या था पता नहीं। तो चलिए इसे एक नाम दे देते हैं , अब कहानी में बिना नाम के काम नहीं चलता।  लेकिन ऐसा किस महा पुरुष ने कहा ?  मुझे तो याद नहीं .. तो चलिए गाँव का नाम रहने ही देते हैं।  तो एक गांव था दूर पहाड़ों के बीच बांज  और बुरांश के जंगलों से घिरा हुआ। लोग कहते थे कि स्वर्ग की यात्रा करते पांडव इस गांव से होकर गुज़रे थे, यहाँ भीम ने अपने हाथों से एक चूल्हा बनाया था।  खैर कहानी ना पांडवों की है और ना उस चूल्हे की। तो चलिए वापस  पहाड़ों के बीच बांज  और बुरांश से घिरे इस गांव में वापस आ जाते हैं, जहाँ कंचे खेलते कुछ लड़के धारा के भूत की बात कर  रहें हैं।  अरे !!! मैंने तो धारा के बारे में आपको बताया ही नहीं।  दरअसल, इस बेनाम गांव से कुछ एक - आध किलोमीटर की दूरी पर धारा थी, बड़े बूढ़ों की माने तो हज़ारों साल पहले इस धारा से अमृत बहता था, जहाँ  देवता अमृत  पीने आते थे।  अब भी गहरी काली रात में पहाड़ों की देवी इस धारा पर अपना कलश भरने आती है और फिर धारा वाले गांव (जिसका नाम रहने ही दीजिये...

पहाड़ और नदी

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सर्दी की दोपहरी की धूप बादलों से छुप कर नदी को देखती है, हमेशा की तरह पहाड़ को छू भर के नदी लचकती खिलखिलाती गुज़र रही थी.. कभी उफान मारती तो कभी शांत। पहाड़ जानता था की नदी सागर की है और नदी जानती है कि वो अपनी नियति की, उसे गर कोई मोड़ दे तो वो गांव या शहर की, कोई रोक ले तो किसी बाँध की , कहीं संगम हो जाये तो देवी और बोतल में बंद हो जाये तो नाले की। इन सारी नियतियों में उसे पसंद था सिर्फ बहना..वो भी पहाड़ को छू - छू कर बहना । "लेकिन पहाड़ तो सदियों से नींद में है... कभी न पूरी  होने वाली नींद में । फिर क्यों इसे छूती हो ? कुछ नहीं मिलेगा यहां ..रहने दो सीधा गुज़रो सागर तक। " धूप नदी से कहती है। नदी एक बार और पहाड़ पर अपनी ठंडी बौछार बिखेरती है, और कहती है "ssshhhh पहाड़ सोया नहीं है मेरे आलिंगन में है। इसे बचाये रखा है मैंने जागने से.. ये जाग गया तो ये भी कई नियतियों का शिकार हो जायेगा ..ठीक मेरी तरह ।" पहाड़ खामोशी से सब सुनता है और मुस्कुरा कर नदी की मासूम गर्माहट में चुपके- चुपके थोड़ा- थोड़ा घुल जाता है । धूप स्तब्ध है ...उसने आज प्रेम देखा  :) - प्रियंक...

बिंदु के लिए

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मुंबई की बात है मैं १२वीं कक्षा में रही होउंगी।  बिंदु जा चुकी थी और मेरे मन में रात दिन उसका उजास चेहरा घूमता रहता।  उसे देखते ही पहाड़ों के कोहरे को चीरती धूप का एहसास होता।  हमेशा लाल रहने वाले उसके गालों का राज़ पूछ कर हम सब उसे छेड़ते। गर्मियों की छुट्टी में जब हम गांव जाते तो खेत में पूरी दुपहरी तपने के बाद वो मेरे घर आती।  मैं उसे अपने कपडे पहनाती, मेरी जीन्स , टी शर्ट , स्कर्ट पहनकर वो शीशे के सामने गोल गोल घूमकर खूब खुश होती।  मैं उसे कहती की रख ले मेरे कपडे और वो कहती "कपाल फोड़ डयलि मेरी माँ".. और फिर हम दोनों खूब हँसते।  मेरा गांव जिस पहाड़ पे हैं उसके नीचे अलकनंदा बहती है, मैं उसे रोज़ वहां चलने को कहती लेकिन वो ग़ज़ब डरपोक थी, बारिश में जमा हुए हलके पानी को देख के भी चक्कर आते थे उसे। उस जमा पानी को देखकर वो अक्सर कहती "रूचि देख इसमें आस्मान दिख रहा, कितना गहरा है न ? " और फिर मैं भी ध्यान से देखकर  जमे पानी में छपाक से कूद के कहती "ले बिखर गया आसमान" . Credit : Amit Joshi आछरियों की कितनी कहानियां सुनाई थी उसन...