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Showing posts from March, 2014

अछूत देवी

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उसे घर बुलाया  बिठाया....  खुद उसके पैर धोये ।  खिलाये उसे छप्पन भोग  और शीश झुका के नमन किया ।      लेकिन कुछ दिनों बाद  वो घर से बाहर  एक पत्थर सरीखे बिस्तर पर  धूप - बारिश में तप रही होगी ।  अलग सी थाल छप्पन नहीं  लेकिन छुआ छूत के भोग से सजी होगी ।   अजीब बात है  महीने का एक बायोलॉजिकल प्रोसेस  एक महावारी...  देवी को अछूत बना देता  है । प्रियंका गोस्वामी 
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संतुलन  photo credits : tauseef iqbal बात बचपन की है  जब मेरे कमरे की दीवार पर लगे स्विच को  मैं टुकुर टुकुर देखती थी।  नन्हे हाथ कभी उसे ऑफ तो कभी उसे  ऑन    करते । एक दिन मैंने उसे ऑफ  और ऑन के बीच रोकने की कोशिश की।  एक लम्बी कोशिश.... जिसने बचपन को जवानी ....और जवानी को बुढ़ापे में तब्दील कर दिया।  आज भी मैं  ऑफ ऑन के बीच उसे रोकने की  कोशिश में हूँ।  लेकिन इस लम्बी कोशिश में  पता नहीं कब स्विच … ज़िन्दगी में  बदल गया है । 
उस रोज़ मेरी बालियां तेरे  होठों से कुछ यूँ टकराई कि ज़िन्दगी ग़ज़ल बन झूमती रही। मैंने महसूस किया उस धधकती सांस को। जो जिस्म पर पड़े ज़ख्मों  को फू फू कर लाड़ करती रही। उस रोज़  मेरे बालों से तेरी  उंगलियां कुछ यूँ गुज़री कि मंज़िलें बाहें फैलाये तकती रही। हाँ उस रोज़ मैंने महसूस किया कि हद से बेहद और बेहद से अनहद  का सफ़र कितना सिन्दूरी  है। प्रियंका गोस्वामी 
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बूढा कल  ज़िन्दगी हांफती हुई  आज उस  पेड़ के नीचे बैठी दिखी ।  जब मैंने उसे  झुककर देखा तो  वो मेरा बूढा कल था।   उसपर उबड़ खाबड़ रास्तों की कई झुर्रियां है लेकिन माथा सपाट है।  दरअसल, थककर चूर  दिन रात पसीना पोछते पोछते  वो उबड़ खाबड़ रास्ते  सपाट  हो गए हैं।  और मेरा बूढा कल  उसी पेड़ के नीचे  हांफता हांफता मुस्कुरा रहा है।  प्रियंका गोस्वामी 
अंतिम सत्य    इस कीबोर्ड की कीटर पिटर में  फेसबुकिया  पकोड़े तलते हुए  मेरा मन साम्राज्यवाद और पूंजीवाद में उलझा है।   रोज़ बम्बार्ड होते लेक्चर  मेरे माथे की लकीरों को  गहरा देते हैं  और क्षेत्रवाद जातिवाद  चेहरे के इर्द गिर्द घूम घूम  तांडव करते हैं।  पर फिर भी मैं मुस्कुरा कर  बाकी कॉमरेडों को सुनती हूँ  जो संसद की गरिमा से लेकर  एक अंतिम सत्य को ढूंढ रहे हैं।  

चाँद वाले बाबा

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रात उठ - उठ कर जागना  प्यार की कसक कब रहा ? नींद तो हमेशा एक कच्ची  कहानी के चिथड़े बटोरने में टूट गई  और स्वप्न एक  कमरे से गुज़र कर चाबी के उन्ही गुच्छों में उलझ गए जिससे उस कमरे को खोला था।   हाँ.... वो कमरा जिसकी कहानी सुनाते हुए  उसने कहा था कि वहाँ  एक नयी दुनिया है परियों की दुनिया चॉक्लेट्स की दुनिया  वहाँ भगवान रहते हैं। भगवान से मिलोगी ? मुझे  सांप गले में डाले उस चन्द्रमा वाले बाबा से मिलना था।   देखना था कि  जो गंगा मेरे गांव के खलिहान सींचती है वो उनकी जटाओं में कैसी दिखती है ? मैं चल दी.… परियां चॉकलैट्स और चाँद  वाले बाबा देखने … उसके हाथों के दस्तानों में जकड़े चाबी के गुच्छे छन- छन करते एकदम माँ की पायलों  की तरह। अरे !!! माँ को भी साथ लाना चाहिए था सोचते ही पीछे मुड़ती हूँ पर मुड़ नहीं पाती ,  वो दस्ताने वाले हाथ चाबियों के साथ मुझे भी  जकड लेते हैं और घसीटते हैं उस कमरे में जहाँ न परियां दिखी न चॉकलैट्स  वहाँ बंद किया जाता है मुंह और दी जाती है एक पी...