पहाड़ और नदी
सर्दी की दोपहरी की धूप बादलों से छुप कर नदी को देखती है, हमेशा की तरह पहाड़ को छू भर के नदी लचकती खिलखिलाती गुज़र रही थी.. कभी उफान मारती तो कभी शांत। पहाड़ जानता था की नदी सागर की है और नदी जानती है कि वो अपनी नियति की, उसे गर कोई मोड़ दे तो वो गांव या शहर की, कोई रोक ले तो किसी बाँध की , कहीं संगम हो जाये तो देवी और बोतल में बंद हो जाये तो नाले की। इन सारी नियतियों में उसे पसंद था सिर्फ बहना..वो भी पहाड़ को छू - छू कर बहना । "लेकिन पहाड़ तो सदियों से नींद में है... कभी न पूरी होने वाली नींद में । फिर क्यों इसे छूती हो ? कुछ नहीं मिलेगा यहां ..रहने दो सीधा गुज़रो सागर तक। " धूप नदी से कहती है। नदी एक बार और पहाड़ पर अपनी ठंडी बौछार बिखेरती है, और कहती है "ssshhhh पहाड़ सोया नहीं है मेरे आलिंगन में है। इसे बचाये रखा है मैंने जागने से.. ये जाग गया तो ये भी कई नियतियों का शिकार हो जायेगा ..ठीक मेरी तरह ।" पहाड़ खामोशी से सब सुनता है और मुस्कुरा कर नदी की मासूम गर्माहट में चुपके- चुपके थोड़ा- थोड़ा घुल जाता है । धूप स्तब्ध है ...उसने आज प्रेम देखा :) - प्रियंक...
हृदय में काफी गहरे चुभ गयी ये बात l मगर हमारे समाज की दुखद सचाई है .
ReplyDeleteachha likha h . . aise hi likhte reh bahut aage jaygi ek din
ReplyDeletegod bless u
thanx deeps..... god bless u too
ReplyDeleteclose to realityy....jin 10-15 rs ko hum khrch karte mai aaj kal do min b ni sochte..uske kuch tukde kuch logo k liye itne eham h..
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