बिंदु के लिए



मुंबई की बात है मैं १२वीं कक्षा में रही होउंगी।  बिंदु जा चुकी थी और मेरे मन में रात दिन उसका उजास चेहरा घूमता रहता।  उसे देखते ही पहाड़ों के कोहरे को चीरती धूप का एहसास होता।  हमेशा लाल रहने वाले उसके गालों का राज़ पूछ कर हम सब उसे छेड़ते। गर्मियों की छुट्टी में जब हम गांव जाते तो खेत में पूरी दुपहरी तपने के बाद वो मेरे घर आती।  मैं उसे अपने कपडे पहनाती, मेरी जीन्स , टी शर्ट , स्कर्ट पहनकर वो शीशे के सामने गोल गोल घूमकर खूब खुश होती।  मैं उसे कहती की रख ले मेरे कपडे और वो कहती "कपाल फोड़ डयलि मेरी माँ".. और फिर हम दोनों खूब हँसते।  मेरा गांव जिस पहाड़ पे हैं उसके नीचे अलकनंदा बहती है, मैं उसे रोज़ वहां चलने को कहती लेकिन वो ग़ज़ब डरपोक थी, बारिश में जमा हुए हलके पानी को देख के भी चक्कर आते थे उसे। उस जमा पानी को देखकर वो अक्सर कहती "रूचि देख इसमें आस्मान दिख रहा, कितना गहरा है न ? " और फिर मैं भी ध्यान से देखकर  जमे पानी में छपाक से कूद के कहती "ले बिखर गया आसमान" .


Credit : Amit Joshi
आछरियों की कितनी कहानियां सुनाई थी उसने मुझे, और सामने जंगल में रहने वाली बंगला देवी की भी।  यहाँ तक की मेरे घर के सामने जो धारा है उसमें रात को एक भूत अपने कपडे धोने आता है , ये बात भी उसी ने मुझे बताई  थी। कई रात जग के देखा गदेरे से ठन्डे पानी की लोरी ज़रूर सुनाई देती लेकिन वो भूत नहीं दिखा।
खैर डेढ़ महीने की छुट्टी के बाद वापस मुंबई आना था। और मैं हर दफा ले आती थी थोड़ा थोड़ा पहाड़ अपनी चोटी में और इस बार जब गांव से चलना हुआ तो बिंदु ने मेरी चोटी की थी.... खजूर चोटी। कितना शौक था उसे बाल बनाने का, काजल लगाने का , सुंदर दिखने का। मैं भी खिलखिला उठी और उससे कहा कि अगली बार तेरे लिए सुन्दर सी लिपस्टिक लाऊंगी।  वो रोने लगी और गले लगाकर कहा जल्दी आना।
उस शाम बोर्ड एग्जाम की तैयारी में जुटी हई मैं कुछ पढ़ रही थी अचानक फोन आया कि बिंदु भाग गयी। भाग गयी सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया क्योंकि उसके चरित्र को लेकर चाय पे चर्चा शुरू हो गयी थी। कोई ये नहीं कह रहा था कि  स्कूल गयी गयी हुई मेरी दोस्त  गायब थी। इस उथल पुथल में  मैं जमी हुई सी अपने कमरे की खिड़की के पास बैठी रही। इतने में एक कबूतर मेरी खिड़की के पास बैठ गया  मेरे मन में न जाने क्या आया और मैंने उससे पूछा कहाँ है मेरी दोस्त ? जवाब में वो  खिड़की से अंदर आ गया और कमरे में बैठ गया , बहुत भगाने पर भी नहीं गया , रातभर मेरे टेबल पर बैठे मुझे ताकता रहा।  सुबह हुई फोन की घंटी बजी माँ रोने लगी। और वो कबूतर फुर्र से उड़ गया।   बिंदु ने उफनती हुयी अलकनंदा में छलांग लगा दी थी।  वही बिंदु जो बारिश के जमे हुए पानी को देखकर कांप जाती थी वो अपना दुपट्टा उतार कर,  अपने जूते उतार  कर,  अपने वहां होने की निशानी देकर अलकनंदा में कूद पड़ी। अपनी बात करूँ तो मैं रो ही नहीं पायी, आज भी नहीं रो पाती। वजह ढूंढने और समझने की कोशिश करती हूँ। लोग तो एक लड़की की कहानी बताते हैं लेकिन मुझे बिंदु को जानना है।  मैं आज भी  बहती उस अलकनंदा से पूछती हूँ , खेतों में बढ़ते गेहूं की फसलों से पूछती हूँ , उसके घर के आयने से पूछती हूँ कि उसकी आज़ादी की छलांग नदी में क्यों थी ? जवाब में एक ठंडी हवा चेहरा चूम लेती है। जवाब नहीं हैं।
 हाँ, कभी कभी आभास होता है कि खूबसूरत छल करते पहाड़ों पर सफ़ेद बिखरे फूलों के बीच कहीं मैं बैठी हूँ , कोहरा छट सा रहा है और भीगी हुई सी वो बिंदु मेरे पास आती है , उसके गाल अभी भी लाल हैं और हम बिना कुछ कहे एक दूसरे के बगल में  बैठे अलकनंदा को निहारते  हैं :)


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