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Showing posts from November, 2015
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चल पड़ो ... मंजिलों की ओर नहीं मंजिलों से दूर. सिर्फ अपने लिये कहीं चल पड़ो.... चल पड़ो और महसूस करो हर सांस की आंधी को... देखो सोचो और फिर चल पड़ो.... चल पड़ो उस हीर की तरह इश्क के मोहल्ले में , भीड़ में सयानों से दूर चल पड़ो... चल पड़ो.. किसी साथी बिना धधकते आसमां के नीचे आवीरगी की बानगी तक... चल पड़ो.... चल पड़ो.. कि मिलो खुद से और हो जाओ मशगूल ऐसे नहीं जैसे जीत होती है.. लेकिन ऐसे जैसे आलिंगन हो... चल पड़ो... चल पड़ो.. जैसे कोई नहीं देख रहा हो चूमों हवाओं को मिट्टी में नहाओ.. सादगी के गांव में किसी आंचल बगान में बस चल पड़ो.. चल पड़ो..
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लंबा सा वक्त जिंदगी का बस यूं ही खर्च हो गया... चलो इस बार पाई -पाई जोड़ उसे घरौंदा बनाते हैं . कुछ किताबें शेल्फ पर बस यूं ही सजी बैठी हैं, चलो इस बार छूकर उसे दुल्हन बनाते हैं ... हर बार घर पर मां को ही लाड़ दिखाते रह गए, चलो इस बार पापा के कंधे दबाते हैं ... पूरा नाम जानकर जो दूरिया बना लेते हैं चलो इस बार उनको ही तनहा कर जाते हैं ... चलो इस बार , चाय बांटते छोटू से नज़रें मिलाते हैं... चलो इस बार... वक्त निकालते हैं चलो इस बार ..थोड़ा रूक ही जाते हैं चलो इस बार  ... इंसान बन जाते हैं प्रियंका