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Showing posts from 2013
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जब हाथ तले मेरे चंदा था  उस धुंए धुनकती रैना में तेरा रोशन चेहरा याद आया जब हाथ  तले मेरे  चंदा था वो रैन बसेरा याद आया। जब याद करूँ तो  तुम चुपके चुपके से बाद  मुस्का देना मैं भी धड़कन को थामूंगी तुम एक झलक दिखला देना तेरी अल्हड अटखेली में वो दिन का ढ़लना याद आया जाते जाते पल भर में वो मुड़कर तकना याद आया जब हाथ तले मेरे चंदा था वो रैन बसेरा याद आया। प्रियंका गोस्वामी  प्रियंका गोस्वामी 
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  मैं शाम ढलने का इंतज़ार करूँ और तुम चुपचाप मेरे सामने अपनी प्यारी सी मुस्कान  लिए  चले आना।  पर आना धीमे से  हौले हौले  बादलों के संग  क्योंकि ये ज़मीन  तुम्हारे हर कदम से तुमको  छू  मुझे चिढ़ाती है।  और मैं मन मसोस कर   सिर्फ उसे घूरती हूँ।  इसलिए चले आना चुपके से  क्योंकि तुम्हे चुरा कर  कहीं दूर ले जाना है।  जहाँ न इंडो - चीन की दीवारें होंगी  और न देवता गुनाह करेंगे।  बस कुछ ठंडी  हवाएं  शायद तुम्हे तंग करें  पर तुम रूठना मत ....  बस कोशिश करना सुनने की  उन हवाओं में छुपे मेरे गीतों को  जिनमे कुछ तुम तो कुछ शिकायतें हैं।  कभी फुर्सत में बैठकर  सुनना उन्हें।   और गर नींद आ जाये तो   सो जाना मेरे आँचल तले  तुम्हे कुछ और नए सपने दिखाने हैं  जिनका मैंने हकीकत से सौदा किया है  बस तुम चुपचाप चले आना  तुम्हें वो हकीकत थमानी है।  प्रियंका गोस्वामी...

कई बार देखा मैंने

कई बार देखा मैंने उस धूल  से सने जिस्म को जो उस फटी कमीज़ से ... झांक-झाँक एक कहानी कहने को बेताब है उस रात भी यही जिस्म धरती पर बिछे उस अखबार पर पसरा था । अख़बार कह रहा था ... आंकड़ों में दर्ज कुछ लोगों की कहानी और पास ही पड़ी थी एक नन्ही जान । कई बार देखा मैंने उस नन्ही जान को जो उस जिस्म की सूखी  छाती में ढूँढता रहता है दूध की धारा .... लेकिन धारा तो शिव के जूडे से निकल कर रोमांच की नदियों में सिमट गयी । इन्ही नदियों में कभी कभी आंकड़ों में दर्ज कुछ लोगों की कहानी लाश बनकर बहती है ... लेकिन जिन्हें हम कई बार देखते हैं क्या वो कहीं दर्ज हैं ? न जाने कितनी नन्ही जान यूँ ही नाजायज़ रहेंगी और धूल  से पसरा जिस्म,  फटी कमीज से झांककर कहेगा एक कहानी कि अब छाती के साथ योनि भी सूख चुकी है । प्रियंका गोस्वामी

संजोना तुम्हारी फितरत नहीं ...

एक और रात कुछ ऐसे गुज़र गई | तेरे कुछ शब्द और मेरे आँखों के बेरंग लहू ने जैसे सबकुछ धो दिया.. घने अँधेरे में चांदनी जीभ चिढाती रही .. और हवाएं सर सर करती, मेज पर रखी उस डायरी के पन्नों को वापस पलटने लगी | कुछ पन्नों के बीच एक गुलाब देखा मैंने | सूखी पंखुड़ियों में आज भी तेरी वही सौंधी खुशबू है | एक दिन डायरी सरीखी ज़िन्दगी के पन्ने फिर पलटेंगे | और नया अध्याय शुरू होगा पन्ने के उस तरफ ...जो खाली छोड़ा था | फिर एक और रात उस पार ऐसे गुजरेगी, शब्द मेरे होंगे और बेरंग लहू तुम्हारा .. बस ना होगी तो एक डायरी ... क्योंकि संजोना तुम्हारी फितरत नहीं ...

हैप्पी फ्रेंडशिप डे

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वक़्त हाथ से रेत की तरह फिसल रहा था ...आदित्य पहली फ्लाइट से लन्दन से दिल्ली पहुंचा | जब तक घर पहुंचा .. उसके पिता की अर्थी जा चुकी थी | आज पहली बार उसे इस घर का सन्नाटा महसूस हो रहा था | चार साल पहले जब माँ गुजरी थी तब भी ऐसा ही सन्नाटा था | लेकिन .. इससे थोडा कम | क्योंकि उसके सामने उसके डैडा  थे उसके दोस्त | पिछले 6 सालों से अपने बीवी बच्चों के साथ  लन्दन में  रह रहा था | पूरे 3 साल बाद वो अपने घर वापस आया था | वो उस खामोश घर में जैसे जैसे अन्दर घुस रहा था वैसे वैसे उसकी ज़िन्दगी के कैनवस पर पड़ी धूल साफ़ होती जा रही थी | खिड़की पर उसके रंगीन नन्हे हाथों के निशाँ अभी तक मौजूद थे | जो कभी घर पेंट होते वक़्त मस्ती में चोरी छिपे उसने छोड़े थे | माँ ने बहुत डांट लगाई थी लेकिन उसके जिगरी दोस्त ..उसके डैडा ने हमेशा की तरह उसका साइड लिया और एक याद की तरह उसे वहीँ सजाये रखा | "मेरी नज़र इसपर पहले क्यों नहीं पड़ी ?"  आदित्य ये सोचते सोचते अपने कमरे में पहुंचा .. वहां उसकी और पल्लवी की शादी की तस्वीर लगी थी | वो फिर एक याद में खो गया "डैडा आई ए एम इन लव " ... बस, उसके यार ...
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छोटी दादी खेतों के बीच पके हुए गेहूं को काटता वो नन्हा शरीर किसी बछड़े से कम नहीं जान पड़ता | अगर वो खड़े होकर दुखती अपनी कमर सीधी न करे तो पहाड़ों पर बसे उन गाँव वालों को किसी जानवर का वहम हो जाता है | वो कुछ गुनगुनाती है और फटाफट दरांती से उन सुनहरे गेहूं की कटाई करती है |  अचानक एक छोर से आवाज़ आती है ऐ...ऐ... मणवाली जी... और फिर मेरी छोटी दादी पहाड़ के उस सिरे को देखती है जहाँ से आवाज़ आई |  छोटी दादी को लोग मणवाली नाम से पुकारते हैं | मेरी छोटी दादी जिनकी शादी 13-14 साल की उम्र में मेरे छोटे दादा जी से हुई थी | शादी के कुछ सालों में कई गर्भपातों के बाद उनकी एक बेटी बची | उस बीच मेरे छोटे दादा जी बाकि पहाड़ियों की तरह काम की तलाश में मैदानों की तरफ निकल चुके थे और वो ऐसे गए की वापसी में साथ एक दूसरी पत्नी ले आये | छोटी मणवाली दादी ने शायद ही उस समय कुछ बोला होगा | खैर, रीति रिवाजों के तहत गांवों वालों को भोज कराया गया अब ये अंदाज़ा लगाना बड़ा मुश्किल है कि ये भोज बेबसी में था ता ख़ुशी मे | कुछ दिन बाद छोटे दादा अपनी  नयी नवेली पढ़ी लिखी पत्नी को लेकर चले गए | ...

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लड़की का पैजामा....   उसे उस छोटे शहर में आये अभी ठीक- ठीक शायद एक हफ्ता ही हुआ होगा | नौकरी इंसान को कहाँ नहीं फेंक देती वरना दिल्ली और मुंबई से पढ़ी इस लड़की ने कभी नहीं सोचा होगा कि वो यहाँ रहेगी | यहाँ जहाँ अकेली लड़की को कमरा देने में सब नाक भौं सिकोड़ते हैं और अगर दे भी दे तो उसे अपनी प्रॉपर्टी समझेंगे| उसे भी आज तक समझ नहीं आया कि अकेली लड़की का हर आदमी बाप बनने की क्यों कोशिश करता है ? फिर चाहे वो बॉयफ्रेंड हो, भाई हो या मकान मालिक. .. जैसे लड़की के पास खुद का कोई दिमाग ही नहीं है ? कोई इच्छा नाम की चीज ही नहीं है | खैर वो एक ऐसे शहर में थी जहाँ वो धुले कपडे बाहर नहीं सुखा पाती थी क्योंकि उसकी जींस, स्कर्ट्स और निक्कर मकान मालकिन को परेशान कर देती थी | क्या करे बेचारी घर के पुरुषों की नज़र पड़ जाएगी तो उसके लिए कितना शर्मनाक होगा... वही घर के पुरुष जो दिन दहाड़े चू**या, माद*** और बहन को धन्य करने वाली गलियां बकते हैं | लेकिन इस लड़की की एक चीज ने बहुत हल्ला मचाया हुआ था | वो चीज थी लड़की का पैजामा.... “ अरे बहिन कैसी लड़की को रखा है तुमने सुबह जाती है...

यहाँ सुनने वाला बहरा सा क्यों है ?

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यहाँ हर सुनने वाला बहरा सा क्यों  है ? जिस शोर को सुनती हूँ उसमे सन्नाटा सा क्यों है ? खुद को जलाया सान्झो सेहर में फिर भी उजाला अँधेरा सा क्यों है ? ये हैं रास्ते  या सफ़र सा है कोई यहाँ हर मुसाफिर छलावा  सा क्यों है ? यूँ तो कहता है वो कि  मुहब्बत है मुझसे पर उसका होना ना होना सा क्यों है ? तुम्ही अब ठहर कर ये माजरा बताओ यहाँ हरेक लाश पर मुस्कान क्यों है ? यहाँ सुनने  वाला बहरा सा क्यों है ?