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देखो मेरे गांव के जंगल जल रहें हैं

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देखो मेरे गांव के जंगल जल रहें हैं और जल रहें है उस जंगल के देवता भी। देखो वो धू धू कर उठती लपटों को जैसे उस जंगल की आछरियों के खुले बाल आसमान में उड़ रहें हो.. देखो मेरे गांव के जंगल जल रहें हैं और जल रही है मेरे बचपन की फ्योंली की कहानी भी। देखो वो बिखरे हुए बुरांश के लाल जले फूल जैसे जंगल का रक्त बहता हुआ सूख गया हो... देखो मेरे गांव के जंगल जल रहें हैं और जल रहें हैं माओं के फुर्सत के पल। देखो वो काफल के जले पेड़ जैसे समाधी में बैठे दधीचि की हड्डियां फैली पड़ी हो... देखो मेरे गावं के जंगल जल रहे हैं और जल रहीं हैं हज़ारों आत्माएं भी । देखो भूमि पर जले गुलदार को जैसे किसी माँ ने अपने मरे बच्चे को खुद में समेटा हो... देखो मेरे गांव के जंगल जल रहे हैं और अब वो जलाएंगे तुम्हे और मुझे भी। फैलेंगे वो कंक्रीट के जंगलों तक धू धू करके जलोगे तुम और मैं। आखिर एक माँ कब तक अपने बच्चों का क़त्ल माफ़ करती रहेगी। - प्रियंका

वक़्त

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तुम्हें भूला नहीं जा सकता तुम्हारे पास मेरा एक लम्बा वक़्त छूटा है। उसी वक़्त का  एक टुकड़ा मैं जाते वक़्त अपनी कोख में छुपा ले आई थी आजकल वो मेरी तकिए के नीचे छुपा  बैठा है । कभी कभी रात में वो चुपके से मेरे बाल सहलाता है और सर के बीचों बीच मांग खींच देता है। लेकिन मांग सूनी रहती है। हमारी सूनी कहानी की तरह। छुपा छुपी का खेल रात भर यूँही चलता है, आँख खुलती है सपना टूटता है चाँद .. एक बिजली के तार पे  लटका है। और तकिए के नीचे वक़्त का टुकड़ा एक दम तुम्हारी तरह ख़ामोशी से सो रहा है।

लक्ष्मण रेखा

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त्रेता में जाकर कहना है लक्ष्मण से तुम्हारी खींची रेखा आज भी जीवित है । उसका जीवन अनंत है वो खिंचती चली आ रही है सदियों से । लेकिन जब भी उसे देखा है अपनी धूरी में पाया है । वो जीवित है । सांस  लेती है मेरे साथ कभी माथे की भरी मांग की तरह तो कभी सूनी कोख की तरह । कभी भरी मांग के सूने होने पर और सूनी कोख के भरे होने पर भ्रूण पूछती है । लक्ष्मण ... तुम्हारी रेखा मुझे डराती है. कहती है, मुझे मत लांघना । उस पार दस सिरों का रावण खड़ा है । मैं रावण को खड़ा देखती हूं , और फिर एक सवाल कौंध जाता है लक्ष्मण ... क्यों नहीं खींची ये रेखा तुमने रावण की धूरी में - प्रियंका