सतरंगी पगड़ी

बाबा ने बचपन में जब गोद में पकड़ उछाला था आसमाँ की तरफ तो ये न मालूम था कि वो उछाल सिर्फ लाड नहीं अनदेखी पगड़ी थी बाबा की वो सुन्दर सतरंगी पगड़ी जिसका एक छोर हाथों में लिए उड़ना था मुझे शायद मुझ पतंग का मांझा था वो हाँ वो सुन्दर सतरंगी पगड़ी कसी हुई…… थोड़ी उठी हुई । जिसने मुझे ऊँचा उड़ने को कहा ऊँचा… आसमां से भी ऊपर पर ये मालूम न था कि वो उड़ान सिर्फ उड़ान नहीं अनदेखी गरिमा थी बाबा की किसी को नहीं मालूम किसी ने नहीं देखा यहाँ कुछ मेरा कहाँ न उड़ान न पहचान मेरे लिए रुकना मना है एक नया कदम उठाना मना है क्यूंकि मेरे तो हर कदम के आगे सतरंगी पगड़ी होती है बाबा की प्रियंका गोस्वामी