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संजोना तुम्हारी फितरत नहीं ...

एक और रात कुछ ऐसे गुज़र गई | तेरे कुछ शब्द और मेरे आँखों के बेरंग लहू ने जैसे सबकुछ धो दिया.. घने अँधेरे में चांदनी जीभ चिढाती रही .. और हवाएं सर सर करती, मेज पर रखी उस डायरी के पन्नों को वापस पलटने लगी | कुछ पन्नों के बीच एक गुलाब देखा मैंने | सूखी पंखुड़ियों में आज भी तेरी वही सौंधी खुशबू है | एक दिन डायरी सरीखी ज़िन्दगी के पन्ने फिर पलटेंगे | और नया अध्याय शुरू होगा पन्ने के उस तरफ ...जो खाली छोड़ा था | फिर एक और रात उस पार ऐसे गुजरेगी, शब्द मेरे होंगे और बेरंग लहू तुम्हारा .. बस ना होगी तो एक डायरी ... क्योंकि संजोना तुम्हारी फितरत नहीं ...